एक बार की बात हैं, एक जंगल में एक भील रहता था। भील का एक लड़का था। लड़के का नाम एकलव्य था। एक दिन एकलव्य हस्तिनापुर नाम के एक नगर में गया। हस्तिनापुर में द्रोणाचार्य के सामने जा पहुँचा। उसने बड़े आदर से गुरु द्रोणाचार्य को प्रणाम किया। द्रोणाचार्य ने पूछा- “तुम कौन हो? यहाँ पर क्यों आए हो?” बालक एकलव्य ने अपने दोनों हाथों को जोड़कर बड़े प्रेम से कहा “गुरुदेव, मैं एक भील बालक हूँ। मैं आपके पास रहकर आपसे धनुष विद्या सीखना चाहता हूँ”
द्रोणाचार्य बड़ी चिंता में पड़ गए। क्योंकि, वें तो हस्तिनापुर के राजकुमारों को धनुष विद्या सीखाते थे। वे उस भील लड़के को कैसे धनुष विद्या सीखा सकते थे? गुरु द्रोणाचार्य कुछ देर उसकी बातों के बारें मे मन ही मन सोचते रहे। फिर उन्होंने कहा- “बालक, मैं तुम्हें धनुष विद्या नहीं सिखा सकता। मैं केवल उन्ही बालकों को धनुष विद्या सिखाता हूँ, जो ऊंचे कुल के होते हैं।”
बालक एकलव्य के मन में दुख पैदा हुआ, पर वह निराश नहीं हुआ। उसने गुरु द्रोणाचार्य को प्रणाम करते हुए कहा- “गुरुदेव, मैं तो आपको अपना गुरु मान चुका हूँ। कृपया आप मुझे अपना आशीर्वाद दें।” बालक एकलव्य वहाँ से लौटकर अपने घर नहीं गया। उसने धनुष विद्या सीखने का प्राण किया था। वह सीधा हस्तिनापुर से वन में जा पहुँचा। उसने गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की एक मूर्ति बनाई। उसने उस मूर्ति के सामने धनुष विद्या सीखना शुरू कर दिया।
धीरे-धीरे कुछ वर्ष बीत गए। एक समय ऐसा आया कि एकलव्य ने धनुष बाण विद्या में महारथ हासिल कर ली। कई वर्षों के बाद एक दिन द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ निशाने के अभ्यास के लिए उसी वन में जा पहुंचे। उनके साथ एक कुत्ता भी था। कुत्ता उन सब का साथ छोड़कर उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ पर बालक एकलव्य मूर्ति के सामने बाण चलाना सीख रहा था। एकलव्य को देखकर कुत्ता रह-रहकर भौकने लगा। पहले तो एकलव्य ने कुत्ते को चुप कराने का प्रयास किया, पर जब कुत्ते ने भौकना बंद नहीं किया तो उसने उसके मुहँ में सात ऐसे बाण मारे कि कुत्ते का मुहँ बाणों से भर गया पर उसे चोट बिल्कुल भी न लगी।
कुत्ता भाग कर द्रोणाचार्य के पास पहुँचा। द्रोणाचार्य और उनके शिष्य, कुत्ते को देखकर आश्चर्य में पड़ गए। सभी लोग सोचने लगे कि ऐसा कौन सा वीर हैं, जिसने कुत्ते के मुहँ में इस प्रकार से बाण मारे हैं कि कुत्ता घायल भी नहीं हुआ हैं। गुरुदेव द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ उस वीर की तलाश में निकल पड़े। अंत में द्रोणाचार्य उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ पर बालक एकलव्य बाण चलाना सीख रहा था। एकलव्य द्रोणाचार्य को देखते ही उनके चरणों में गिर पड़ा।
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द्रोणाचार्य ने उससे पूछा- “हे वीर, क्या तुमने ही हमारे इस कुत्ते के मुहँ में बाण मारे हैं?” एकलव्य ने कुछ न बोलकर अपने सिर को नीचे की तरफ झुका लिया। द्रोणाचार्य ने दुबारा फिर से पूछा- “क्या मैं जान सकता हूँ कि तुमने यह बाण विद्या किससे सीखी?” एकलव्य ने अपने दोनों हाथों से मिट्टी की बनी हुई मूर्ति की तरफ इशारा किया। द्रोणाचार्य ने मिट्टी की मूर्ति देखते हुए कहा- “पर यह तो मूर्ति मेरी हैं।” एकलव्य ने उत्तर दिया- “हाँ, गुरुदेव! ये बाण विद्या मैंने आपसे ही सीखी हैं।”
एकलव्य ने उन्हे याद दिलाया कि वह एक दिन उनके पास बाण विद्या सीखाने का प्रस्ताव लेकर गया था, पर उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। तभी से वह उन्हे अपना गुरु मानकर बाण विद्या सीखने लगा, इसलिए वें ही उसके गुरु हैं। द्रोणाचार्य प्रसन्न हो उठे। वे मन ही मन कुछ सोचने लगे। उन्होंने सोचकर कहा- “बालक! तुमने मुझसे बाण विद्या सीखी हैं, क्या तुम मुझे गुरु-दक्षिणा नहीं दोगे?” एकलव्य ने द्रोणाचार्य से कहा- “आज्ञा करें गुरुदेव, आप गुरु-दक्षिणा में क्या चाहते हैं?”
गुरु द्रोणाचार्य ने कहा- “बालक, मैं गुरु-दक्षिणा में तुम्हारे दाहिने हाँथ का अगुंठा चाहता हूँ। एकलव्य ने सोचा मेरे दाहिने हाथ का अगुंठा दे देने से मेरे कई वर्षों की बाण विद्या बेकार चली जाएगी। मैं न तो निशाना लगा सकूँगा, नहीं बाण चला पाऊँगा। वह बहुत ही असमंजस में पड़ गया कि मेरे गुरु ने यह कौन सी गुरु-दक्षिणा मांग ली। लेकिन, उसने सोचा मुझे गुरु-दक्षिणा तो अवश्य देनी हैं।
एकलव्य ने हाथ में तलवार ली। उसने तलवार से अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया। द्रोणाचार्य ने प्रसन्न होकर उससे कहा- “बेटा एकलव्य, मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे यश की कहानी सदा धरती पर गूँजती रहेगी।